कोविड -19 संकट में दुनिया भर में विकास नाजुक बना हुआ है और महामारी के निरंतर और प्रबल प्रभावों के कारण लाभ बर्बाद हो सकते हैं। क्षेत्रीय खाद्य उत्पादन और इन आपूर्ति श्रृंखलाओं पर निर्भर लोगों की आजीविका पर पारिस्थितिकी तंत्र के वृद्धिशील पतन, जैव विविधता की क्षति, और लू, बाढ़ और सूखा जैसी खराब मौसमी परिस्थितियों की परस्पर क्रिया के साथ-साथ वेक्टर जनित और अन्य संक्रामक रोगों के परिवर्तित संचरण पैटर्न सामान्यतः वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है। खाद्य, रोजगार और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए कृषि क्षेत्र पर हमारी भारी निर्भरता के साथ, विशेष रूप से भारत के संदर्भ में, स्पष्टतः यह एक अस्थिर स्थिति है।

 

प्राकृतिक खेती भारत में कृषि संकट – उच्च इनपुट लागत, नाजुक उत्पादन प्रणाली, इनपुट का अत्यधिक एवं अक्सर प्रदूषणकारी उपयोग, और किसान ऋणग्रस्तता – से उबरने का एक संभावित मार्ग प्रदान करती है।

 

नीति आयोग ने प्रमुख विशेषज्ञों और भागीदारों के साथ एक आभासी परामर्श की मेजबानी की ताकि यह पता लगाया जा सके कि प्राकृतिक खेती – जिसमें भारत विश्व में अग्रणी के रूप में मान्य है – न केवल कृषि को लचीला और उत्पादक दोनों बनाकर, बल्कि नए हरित रोजगार तथा खाद्य एवं पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार प्रदान करके भी हमें ‘बेहतर बनाने’ में मदद कर सकता है। गोलमेज सम्मेलन ने प्रमुख राष्ट्रीय हितधारकों और वैश्विक विचारकों के बीच विचारों और कार्यनीतिक विचारों के आदान-प्रदान के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान किया।

 

सर्वसम्मति यह थी कि विश्व को बचाने के लिए कृषि विज्ञान ही एकमात्र विकल्प है और यह भारतीय परंपरा के अनुरूप है। मनुष्य को अन्य प्रजातियों और प्रकृति की रक्षा करने में अपनी जिम्मेदारी का एहसास करने की जरूरत है। हमें ज्ञान-केंद्रित कृषि की आवश्यकता है, जिसके लिए मीट्रिक को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है ताकि सारा फोकस उत्पादन बढ़ाने पर ही न हो।

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